Condition of women who are doing chikankari.

– फोटो : amar ujala

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बमुश्किल चार फुट चौड़ी ऊंची नीची गली…उसमें आठ गुणा आठ का छोटा सा कमरा…वहां काम करतीं 12 महिलाएं…ये नजारा था सीतापुर रोड स्थित चिकन कामगारों के इलाके का…जहां लखनऊ की नफासत और विरासत को बड़े जतन से सहेजने की जद्दोजहद चल रही है। इन्हीं तंग गलियों में चिकनकारी की नायाब नक्काशी के बेशकीमती रत्न छिपे हैं। इनकी कारीगरी की चमक पर दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद और कोयम्बटूर के बड़े सेठों का ठप्पा लगा है। तंगहाली और गुमनामी की दुनिया में जी रहीं इन महिलाओं को कोई नहीं जानता।

पहचान खोने के खतरों से घिरी लखनऊ की चिकनकारी का असली चेहरा देखना हो तो सीतापुर रोड के खदरा से जहां तक आगे बढ़ सकते हों, बढ़ जाइए। सैकड़ों महिलाएं ऐसी मिलीं, जिनकी तीसरी पीढ़ी कपड़ों पर नायाब कारीगरी उकेर रही हैं लेकिन उनके जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया।

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तीस साल से छोटे से कमरे में चिकनकारी सेंटर चला रहीं मुन्नी ने कहा कि कोई पूछने वाला नहीं है। आठ घंटे रोज की मेहनत के बाद एक महिला को 200 रुपये नसीब होते हैं। ऑर्डर कौन देता है। जवाब में कहा, दिल्ली-गुड़गांव की मैडम आती हैं और काम दे जाती हैं। अगर कढ़ाई में रत्तीभर भी ऊंच-नीच हो गया तो कपड़ा वापस भेज दिया जाता है। दोबारा कढ़ाई करने की सजा और पैसा अलग से काट लिया जाता है।

आंखों की रोशनी जल्दी छिन रही

चिकनकारी के महीन काम की वजह से अधिकांश महिलाओं की आंखों में 14 साल की उम्र से ही चश्मा चढ़ गया। कोई मेडिकल सुविधा नहीं है। इनके उत्थान के लिए काम कर रहीं सारा फातिमा ने बताया कि 50 की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते ये महिलाएं मोतियाबिंद की शिकार हो जाती हैं। उनके पास बुनकर कार्ड तक नहीं है। पढ़ाई में बहुत पिछड़ी हैं। पूरे इलाके में एक भी महिला नहीं मिली जो ग्रेजुएट हो। हाईस्कूल पास भी गिनी चुनी हैं। नसीमा ने बताया कि गांव में तो हालात और भी खराब हैं। वहां तो एक कपड़े पर 30 से 40 रुपये मेहनताना देकर बड़े ब्रांड शोषण कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि सरकारी योजनाओं के असल लाभ की जरूरत उन्हें हैं। अगर सही जानकारी और प्रशिक्षण मिल जाए तो अकेले लखनऊ में चिकनकारी पांच गुना बढ़ जाएगी।



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