
अयोध्या-राम की मूर्ति।(फाइल फोटो)
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सोलहवीं से बीसवीं सदी आ गई। राम के जन्मस्थान पर विवाद और संघर्ष को चार सदी से ज्यादा गुजर चुके थे। कोर्ट में मामला पहुंचा, तो लगा शायद खून-खराबे का दौर रुक जाए। पर, मेरी नियति में अभी बहुत कुछ देखना बाकी था। विदेशी आक्रांता बनाम सनातनी आस्था के संघर्ष ने बीसवीं सदी में हिंदू-मुस्लिम टकराव का रूप ले लिया।
सांप्रदायिक दंगों का दौर शुरू हो गया। वर्ष था 1934 का। अयोध्या में ऐसी घटना घटी, जिसने साधुओं को गुस्से से भर दिया और ढांचे पर हमला बोल दिया। फैजाबाद के डिप्टी कमिश्नर पुलिस को लेकर जब तक मौके पर पहुंचे, साधुओं ने ढांचे के तीनों गुंबदों को तोड़ दिया था।
कुछ दीवारों को भी नुकसान पहुंचा था। पुलिस लाख कोशिश के बाद भी साधुओं को परिसर से निकालने में नाकामयाब रही। पहली बार जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद का मामला प्रदेश के सबसे बड़े सदन विधान परिषद में उठा। मैं चिंतित थी, पता नहीं इन बेचारे साधुओं और हिंदुओं के विरुद्ध अंग्रेजी हुकूमत क्या कुचक्र रचे।
मुझे जज चामियर का वह निर्णय याद आ रहा था, जिसमें मंदिर के स्थान पर मस्जिद बनाने का तथ्य स्वीकार करने के बावजूद मंदिर के पक्ष में फैसला न देने की बेबसी थी। मैं सोच रही थी कि यह कैसी न्याय व्यवस्था है, जहां मान तो सभी रहे हैं कि मस्जिद के स्थान पर मंदिर था, लेकिन उसके पक्ष में फैसला कोई नहीं देना चाहता। चिंता इसलिए भी थी कि अंग्रेजी हुकूमत कहीं इन साधुओं को फांसी पर न लटका दे।