टेराकोटा की जिन खूबसूरत मूर्तियों की ग्रेटर नोएडा के अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले में धूम मची थी, उसे खास बनाती है एक विशेष प्रकार की मिट्टी काबिश। खेत में डेढ़ से दो फिट नीचे मिट्टी की इस पतली परत को खोजना और निकालकर लाना बड़ा मुश्किल काम है। एक बार मिट्टी जुटाकर पूरे साल के लिए रखी जाती है। इसे ही पानी में घोलकर मूर्ति पर लगाया जाता है। इसके बाद मूर्ति को पकाने पर रंग अलग नजर आने लगता है।

गोरखपुर शहर से करीब 30 किलोमीटर दूर औरंगाबाद गांव अब टेराकोटा वाले गांव के रूप में पहचान बना चुका है। इस गांव के विजयी प्रजापति पहले लोगों की जरूरत के अनुसार मिट्टी के बर्तन बनाते थे। उनके तीन बेटों सुखराज प्रजापति, रामदेव प्रजापति और श्यामदेव प्रजापति ने भी पुश्तैनी पेशे को ही आजीविका का आधार बनाया। इसी पीढ़ी ने पुश्तैनी कारोबार में बदलाव किया और मिट्टी से बनीं मूर्तियों को मिट्टी के ही रंग से रंगना शुरू किया। यह रंग था मिट्टी के नीचे दबी एक विशेष परत की, जिसे काबिश कहते हैं।

 



टेराकोटा की मूर्तियों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार पाने के बाद इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और हालैंड की यात्रा कर चुके गुलाबचंद्र प्रजापति बताते हैं कि काबिश की तलाश ही सबसे कठिन है। जिन खेतों में यह मिट्टी मिलती है, उनके मालिक खेत में दो फिट गहरा गड्ढा कराने को तैयार नहीं होते। किसी तरह प्रयास कर मिट्टी को लाया जाता है। इसे पूरे साल भर के लिए स्टोर किया जाता है। इस मिट्टी को आम के छाल और खारा सोडा मिलाकर कूटा जाता है। जब मूर्ति के लिए मिट्टी बनाने का काम शुरू होता है, तभी काबिश को भी एक बर्तन में पानी मिलाकर रख दिया जाता है। अगले दिन जब मूर्तियां सूख जाती हैं, तब काबिश से उसकी रंगाई कर दी जाती है। इसके बाद पकने पर मूर्तियां दो रंग में दिखती हैं। इसके अलावा ऑर्डर होने पर कलाकार कृत्रिम रंगों का प्रयोग कर मूर्तियों को अलग-अलग रंग में भी रंग देते हैं।

 


एक घर से शुरू हुआ कारोबार, अब 20 घरों को दे रहा रोजगार

गोरखपुर। हुनर और हौसला है तो तरक्की के लिए जगह कोई मायने नहीं रखती। औरंगाबाद के हुनरमंद लोगों ने इसे साबित भी किया है। एक घर से शुरू हुआ मिट्टी के बर्तन बनाने का पुश्तैनी पेशा आज गांव के 20 परिवारों को टेराकोटा कारीगर के तौर पर विशिष्ट पहचान दे चुका है। इस गांव के छह युवा देहरादून के बड़े स्कूलों में बच्चों को कला पढ़ा रहे हैं। ग्रेटर नोएडा में चल रहे अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले में भी टेराकोटा के उत्पादों की खूब डिमांड हो रही है।

टेराकोटा की कारीगरी से तीन पुश्तों से जुड़े बुजुर्ग विक्रम प्रजापति बताते हैं कि उनके पिता मंगरू गोरखपुर से आकर इस गांव में अपने ननिहाल में बस गए थे। आज वह खुद तो मूर्तियां बनाते ही हैं, बेटे और पोते भी इस काम से जुड़े हैं। दो मंजिला घर और दरवाजे पर खड़ा ट्रैक्टर इनके परिवार की संपन्नता को बता रहा है। इस पेशे से जुड़े छह अन्य लोगों के दरवाजे पर भी ट्रैक्टर है। सभी का पक्का घर बन चुका है और वर्तमान में जरूरत की सभी वस्तुएं भी उपलब्ध हैं। बच्चे भी अच्छे स्कूलों में पढ़ाई कर रहे हैं। ग्रेटर नोएडा के व्यापार मेले में अपना स्टॉल लगाए पन्नेलाल प्रजापति समेत अन्य लोगों की भी कारोबार इसी बिल्डिंग में चल रहा है। इस गांव के हरिश्चंद्र, अनिल, सुनील, संजय, अजय और शर्मेंद्र कुमार देहरादून के प्राइवेट स्कूलों में कला टीचर की नौकरी कर रहे हैं।

 


सरकार ने बनवाकर दिया है कार्यशाला

विक्रम प्रजापति के घर के सामने ही सरकार की तरफ से बनवाया गया दो मंजिला कार्यशाला है। लक्ष्मी स्वयं सहायता समूह के 12 सदस्यों को इसमें दो-दो कमरे आवंटित हैं। इसमें इलेक्ट्रॉनिक चॉक, मिट्टी बनाने की मशीन, बने बर्तन व मूर्तियां आदि रखी जाती हैं। सामने के खाली परिसर में मूर्तियों को सुखाने और सामान लाने-भेजने का काम होता है। इन सभी कार्याें में 100 से अधिक मजदूर भी काम में लगे हैं, जो मिट्टी बनाने, पकाने और लोडिंग-अनलोडिंग में सहयोग देते हैं।

मिट्टी और कंडे की भी बढ़ी डिमांड

औरंगाबाद में तैयार मूर्तियों को खरीदने के लिए दूर-दूर से लोग आने लगे। इसे देखते हुए अगल-बगल के गांवों अशरफपुर, बेलवा रामपुर, रुपाडीह,भलवरिया, जंगल एकला नंबर-2 आदि के लोग भी यहां आकर मिट्टी की मूर्तियां बनाना सीखने लगे। अब वे अपने गांवों में अपना कारोबार चला रहे हैं। इस कार्य से जुड़े लोगों ने बताया कि एक कारीगर परिवार एक साल में तीन चार से चार ट्राली मिट्टी की खपत करता है। एक ट्राली मिट्टी पांच हजार रुपये में आती है। इसके अलावा मूर्तियों को पकाने के लिए प्रतिवर्ष 40 से 50 हजार रुपये का कंडा खरीदा जाता है। गांव के पशुपालकों से इसकी आपूर्ति नहीं हो पाती तो अगल-बगल के चार-पांच गांव में जाकर खरीदारी करनी पड़ती है।

 


बोले टेराकोटा कलाकार

कलाकार विक्रम प्रजापति ने कहा कि यह पुश्तैनी काम अब हमारी पहचान बन गई है। सरकार ने भी मदद की, जिससे माहौल बदलने में आसानी हुई। अब हमारी अगली पीढ़ी भी इस काम को करके खुश है। व्यापार अब दो गुना हो चुका है।

 

कलाकार रामफल प्रजापति ने कहा कि आज यह काम तेजी से आगे बढ़ रहा है। अब तो लोग ह्वाट्सऐप पर डिजाइन भेजते हैं और हम उसके अनुरूप मूर्तियां बना देते हैं। अपने दरवाजे पर बैठकर हम बेहतर आजीविका कमा रहे हैं।

 

कलाकार गुलाब चंद्र प्रजापति ने कहा कि आज हमारे पास जो कुछ भी है, वह इसी टेराकोटा कला की देन है। इस काम को करते हुए खेती, मकान, वाहन सब कुछ मिल गया है। अपने घर में रोजगार मिले तो कोई बाहर क्यों जाना चाहेगा। हमारे बच्चे भी मन से यह काम कर रहे हैं।

 




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