विजय द्विवेदी की रिपोर्ट

जगम्मनपुर ,जालौन । पंचनद घाटी में स्वतंत्रता आंदोलन की अलख जगाने वाले प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रूपचंद्र पांडे अब देवता की श्रेणी में पहुंचकर पांडरी वाले बाबा के रूप में पूज्य हो चुके हैं ।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 अट्ठारह सौ सत्तावन की जनक्रांति में अंग्रेजों से लोहा लेने वाले आंदोलनकारी सेनानियों में पंचनद क्षेत्र के अनेक जमींदार व समाज के विभिन्न वर्ग के जन-जन की संघर्ष गाथा यहां की आव-ओ-हवा में विद्यमान हैं । इस क्षेत्र में स्वतंत्रता आंदोलन के पराक्रमी वीरों की संख्या कम नहीं है लेकिन इन सबके बीच एक ऐसे महान वीर एवं तपोनिष्ठ ब्राह्मण की गाथा भी शामिल है जो अंग्रेजों से लोहा लेते समय विकलांग होने के बाद शेष जीवन साधना करते अंतिम दिनों तक देश को आजाद कराने की योजना बनाकर उसे मूर्तरूप देते रहे । इन पराक्रमी राष्ट्रभक्त का नाम रूपचंद पांडे था जिन्हे अब उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश , राजस्थान , हरियाणा राज्य के बड़े भूभाग में पाड़री वाले मसान बाबा या पाड़री के देवता के रूप में पूजा जा रहा हैं । रूपचंद पांडे ग्राम बझाई परगना वा जिला भिंड के निवासी थे । ग्राम बझाई कुंवारी नदी के किनारे जंगल में स्थित अति पिछड़ा गांव है । नदी पार दूसरी तरफ इटावा जिला के चकरनगर इलाके का भूभाग है। सन् 1857 की राज्य क्रांति के लिए निर्धारित तिथि 31 मई 1857 को चकरनगर के युवा क्रांतिकारी नेता निरंजन सिंह चौहान और भरेह के क्रांतिकारी नेता रूप सिंह सेंगर ने अपने क्षेत्र में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी । ग्वालियर रियासत के सूबा भिंड के क्रांतिकारी नेता दौलत सिंह ने भी आज ही के दिन दबोह (भिंड) पर कब्जा करके स्वतंत्रता का बिगुल फूंक दिया था । ग्राम बझाई गांव की माटी के लाल रूपचंद पांडे क्रांति प्रारंभ होते ही सक्रिय हो गए थे उन्होंने अपने गांव बझाई तथा कुंवारी नदी के तटवर्ती अन्य गांव नदोरी , कनावर आदि के युवक वीरों को जागृत संगठित और सशस्त्र कर एक अघोषित सैनिक टुकड़ी बना ली थी और कचौंगरा के वीर योद्धा रणधीर सिंह भदौरिया सांकरी के झंडासिंह भदौरिया, ककहरा के बंकटसिंह कुशवाह से मिलकर अपने गांव के 75 किमी के घेरे में अंग्रेजी सेनाओं और ब्रिटिश राज्य के समर्थक देशी राजाओं तथा सामंतों के सैन्य बल के खिलाफ अनेकों युद्ध लड़े। अट्ठारह सौ सत्तावन के क्रांति की महानायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और उनके सहयोद्धाओं के 26 मई 1858 को गोपालपुरा (जालौन) आने पर रूपचंद्र पांडेय अपने मारक क्रांतिकारी सैन्य दस्ते के साथ उनसे जा मिले और ग्वालियर पर अधिकार कर उसे क्रांति का नया केंद्र बनाने वाली रानी लक्ष्मीबाई के सैन्य अभियान में वह सम्मिलित रहे थे। रूपचंद पांडे की भांति भिंड जनपद के हजारों युवक जनमुक्त सेना में अपने प्राणों को उत्सर्ग करने की भावना से भर्ती हुए थे । 1 जून 1858 को ग्वालियर रियासत के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया , उनके प्रधानमंत्री दीवान दिनकर राव की फौज को युद्ध में पराजित कर क्रांतिकारियों ने ग्वालियर पर अपना अधिकार कर क्रांतिकारी नेता राव साहब को ग्वालियर राज्य का पेशवा नियुक्त कर क्रांतिकारी राज्य सत्ता की स्थापना की थी । रूपचंद्र पांडे के दिल में फिरंगियों के प्रति तीव्र नफरत होने के कारण ब्रिटिश राज्य के प्रभाव को क्षेत्र में नामोनिशान मिटा देने की अमिट भावना के कारण वह राष्ट्रीय और क्षेत्रीय क्रांतिकारी नेताओं के चहेते बन गए थे ।
ब्रिटिश सेना नायक ह्यूरोज ने आगरा से जीवाजी राव सिंधिया को बुलाकर एक बड़ी अंग्रेजी सेना लेकर 17 जून 1858 को ग्वालियर पर आक्रमण किया था 17 जून को अंग्रेजी सेनाएं पराजित हुई लेकिन ह्यूरोज की कुटिल चालबाजी तथा नीच हथकंडा के कारण 18 जून को

जनक्रांति सेना पराजित हुई जिसमें राष्ट्रीय नायिका महारानी लक्ष्मी बाई के साथ सहस्त्रों वीरों ने भी अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया । इस संग्राम में वीर रूपचंद्र पांडे का युद्ध करते हुए एक पैर कट गया था । वीर चिमना जी उर्फ हरिश्चंद्र सिंह जी बुरी तरह घायल हुए थे । अमायन के राजा भगवंत सिंह कुशवाह भी शहीद हो गए थे । घायल रूपचंद पांडे और चिमना जी को उनके साथी ग्वालियर से भिंड लाए । रूपचंद्र पांडे का पूरा पैर कट गया था । उन दिनों इलाज की अच्छी व्यवस्था नहीं थी , अंग्रेजी फौजें और सिंधिया की फौजें क्षेत्र में कहर ढा रही थी। वीर रूपचंद पांडे को उनके जन्म स्थान ग्राम बझाई से पूर्व की ओर कुछ किलोमीटर के फासले पर कुंवारी नदी के किनारे घने जंगल में गुप्त स्थान पर रखकर उपलब्ध साधनों से उनके इलाज की व्यवस्था की गई उस गुप्त स्थान से पांडरी गांव नजदीक था । नदी से पार करते ही वीर निरंजन सिंह और रूप सिंह सेंगर के प्रभाव का क्षेत्र था कुछ समय इलाज के बाद रूपचंद्र पांडे नदी तटपर साधना करते रहे तथा अपने कुछ विश्वसनीय क्रांतिकारी वीरों के साथ देश की आजादी की योजनाओं को बनाते व मूर्तिरूप देते हुए क्रांति की जीत में अटूट आस्था के साथ कुंआरी नदी के जल में अपने जीवन की अंतिम सांस ली । उनके साथियों ने नदी के तट पर उसी स्थान पर उनका अंतिम संस्कार किया व एक स्मृति चिन्ह बना दिया । अपनी देह त्यागने के बाद भी उनके अंदर लोक कल्याण की भावना बलवती रही और जंगल में पशु चराने बाले ग्रामीणों को उन्होने साक्षात दर्शन दिए। धीमे धीमे लोग नदी तट पर बने उनके स्मृति स्थल पर जाकर पूजा करके मनोंतिया मानने करने लगे । चमत्कार यह हुआ कि यहां मांगी हुई मंनत पूरी होने लगी और लोगों की इस स्थान के प्रति अटूट श्रद्धा व विश्वास हो गया। पांडरी गांव के निकट होने के कारण यह स्थान पाड़री का मंदिर व शहीद रूपचंद्र पांडे को स्थानीय देवता के रूप मे पाड़री बाले बाबा या पाड़री के मसान बाबा के रूप मे बहुत अधिक भक्ति व श्रद्धा के साथ पूजा जाने लगा।
पाड़री के मसान बाबा के भव्य मंदिर पर बर्षभर प्रतिदिन हजारों लोग दर्शन पूजा के लिए आते रहते है। अपनी अद्भुत अलौकिक शक्तियों के कारण पाड़री बाले बाबा के देश में अनेक राज्यों के बडे भूभाग में अनेक स्थानों पर छोटे बडे हजारो मंदिर बने है ।

नोट-प्रस्तुत लेख में कुछ प्रसंग 1857 पंचनद घाटी के रणबांकुरे नामक पुस्तक से उद्धृत किए गए हैं।

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