🧵एक धागा में बतायेंगे क्या है।📝🧶
▪️ यक्षिणी क्या है ?
▪️योगिनी क्या है?
▪️नागिनी क्या है?
▪️भूत-पिशाच क्या है?
▪️विद्याए क्या है?
▪️भैरव क्या है ?
(पर्वत सिंह बादल उरई जालौन) ✍🏻 ✍🏻 ✍🏻 ✍🏻 ✍🏻 ✍🏻
ऊपर लिखे विवरण का मात्र YouTube से देख कर किसी भी मंत्र को उठा कर स्वयं से जाप,अनुष्ठान, ना करे, अमंगल होगा
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यक्षिणी क्या है ?
हिन्दू धर्मशास्त्रों में मनुष्येतर जिन प्राणि-जातियों का उल्लेख हुआ है, उनमें देव, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, नाग, राक्षस, पिशाच आदि प्रमुख हैं। इन जातियों के स्थान जिन्हें ‘लोक’ कहा जाना है-भो मनुष्यजाति के प्राणियों से भिन्न पृथ्वो से कहीं अन्यत्र अवस्थित हैं। इनमें से कुछ जातियों का निवास आकाश में और कुछ का पाताल में माना जाता है ।
इन जातियों का मुख्य गुण इनको सार्वभौमिक सम्पन्नता है, अर्थात् इनके लिए किसी वस्तु को प्राप्त कर लेना अथवा प्रदान कर देना सामान्य बात है। ये जातियाँ स्वयं विविध सम्पत्तियों की स्वा- मिनी हैं। मनुष्य जाति का जो प्राणी इनमें से किसी भी जाति के किसी प्राणी की साधना करता है अर्थात् उसे जप, होम, पूजन आदि द्वारा अपने ऊपर अनुरक्त कर लेता है, उसे ये मनुष्येतर जाति के प्राणी उसकी अभिलाषित वस्तु प्रदान करने में समर्थ होते हैं। इन्हें अपने ऊपर प्रसन्न करने एवं उस प्रसन्नता द्वारा अभिलषित वस्तु प्राप्त करने की दृष्टि से ही इनका विविध मन्त्रोपचार आदि के द्वारा साधन किया जाता है जिसे प्रचलित भाषा में ‘सिद्धि’ कह कर पुकारा जाता है।
यक्षिणियाँ भी मनुष्येतर जाति की प्राणी हैं। ये यक्ष जाति के पुरुषों की पत्नियाँ हैं और इनमें विविध प्रकार की शक्तियाँ सन्निहित मानी जाती हैं। विभिन्न नामवारिणी यक्षिणियाँ विभिन्न शक्तियों से सम्पन्न हैं- ऐसी तांन्त्रिकों की मान्यता है। अतः विभिन्न कार्यों की सिद्धि एवं विभिन्न अभिलाषाओं की पूति के लिए तंत्रशास्त्रियों द्वारा विभिन्न यक्षिणियों के साधन की क्रियाओं का आविष्कार किया गया है। यक्ष जाति चूंकि चिरंजीवी होती है, अतः यक्षिणियाँ भी प्रारम्भिक काल से अब तक विद्यमान हैं और वे जिस साधक पर प्रसन्न हो जाती हैं, उसे अभिलषित वर अथवा वस्तु प्रदान करती हैं ।
अब से कुछ सौ वर्ष भारतवर्ष में यक्ष-पूजा का अत्यधिक प्रचलन था । अब भो उत्तर भारत के कुछ भागों में ‘जखैया’ के नाम से यक्ष- पूजा प्रचलित है। पुरातत्त्व विभाग द्वारा प्राचीन काल में निर्मित यक्षों की अनेक प्रस्तर मूर्तियों की खोज की जा चुकी है। देश के विभिन्न पुरातत्त्व संग्रहालयों में यक्ष तथा यक्षिणियों की विभिन्न प्राचीन मूर्तियाँ भी देखने को मिल सकती हैं।
कुछ लोग यक्ष तथा यक्षिणियों को देवता तथा देवियों की ही एक उपजाति के रूप में मानते हैं और उसी प्रकार उनका पूजन तथा आराधनादि भी करते हैं। इनकी संख्या सहस्रों में हैं।

▪️योगिनी क्या है ?
योगिनियों की उत्पत्ति आदिशक्ति महादेवी के एक स्वरूप काली (जिनका दश महाविद्याओं में उल्लेख है) के स्वेद- कणों से मानी गई है। ‘घोर’ नामक महादैत्य का वध करने के लिए जब भगवती ने ‘काली का स्वरूप’ धारण किया था, उस समय दैत्य- राज से वध करते समय उसके शरीर से जो स्वेद-बिन्दु नीचे गिरे, उनसे करोड़ों योगिनियों की उत्पत्ति हुई थी। वे सभी योगिनियाँ भगवती काली के साथ ही विद्यमान रहती हैं तथा भगवती के अंश से उत्पन्न होने के कारण वे सब भी भगवती महादेवी के ही समान सामर्थ्यशलिनी तथा अपने भक्तों की अभिलाषा को पूर्ण करने वाली है पृथक् पृथक् योगिनी पृथक् पृथक् विशिष्ट गुणों एवं क्षमता को धारण करने वाली बताई गई है।
काली की ही तरह तंत्र शास्त्र में योगिनियों का अत्यधिक महत्व माना गया है क्योंकि इनकी साधना से साधक को महान सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। भारत के कई हिस्सों में आप चौसठ योगिनी मंदिर देखते होंगे। इन 64 योगनियों की उत्पत्ति माँ काली से हुआ है। इनमें से हर एक योगिनी की अपनी एक ख़ास विशेषता है। इन 64 योगिनों की उत्पत्ति 8 मातृकाओं से हुई है। इन आठ देवियों ने शुंभ, निशुंभ और रक्तबीज राक्षसों के नाश में माँ दुर्गा की सहायता की थी। हर एक मातृका की सहायक आठ शक्तियाँ थीं। इसीलिए सबको मलाकर इनकी संख्या 64 हो जाती है।

▪️ नागिनी क्या हैं ?
मनुष्येतर जातियों में एक जाति ‘नाग’ का भी उल्लेख हुआ है। इनका निवास ‘नाग लोक’ में माना जाता है। नाग लोक की अवस्थिति पृथ्वी के नीचे पाताल लोक के समीप बताई गई हैं। नागिनियाँ इसी जाति की स्त्रियाँ हैं। नागनियों को परमसुन्दरी एवं दैवो शक्ति से सम्पन्न माना जाता है। हमारे देश में नाग-पूजा का प्रचलन भी सहस्रों वर्षों से है । आज भी वह यत्र-तत्र-सर्वत्र पाया जाता है। सर्पों की पूजा नागों के प्रतीक रूप में ही की जाती है।
नाग-देवताओं को प्राचीन प्रस्तर मूतियाँ भी पुरातत्त्व विभाग द्वारा प्रचुर संख्या में उपलब्ध की गई हैं, जिन्हें देश के विभिन्न पुरा-तत्त्व संग्रहालयों में देखा जा सकता है। नाग-वंशी राजाओं का उल्लेख भी पुराण तथा इतिहास के ग्रंथों में पाया जाता है।
नाग-जाति में भी अपने भक्त साधक को अभिलषित वर एवं सामग्री प्रदान करने की क्षमता कही गई है, इसलिए उनका साधन करने के लिए विविध मन्त्र, जप तथा होम की प्रथाएँ प्रचलित हैं।

▪️ भूतना आदि क्या हैं ?
मनुष्येतर जातियों में भूत, प्रेत, पिशाच, वैताल, डाकिनी आदि की स्थिति भी प्राचीन काल से मानी जाती है। इन सभी को भूतेश्वर भगवान् शिव का अनुचर बताया गया है। इनकी स्त्रियाँ भूतनी, प्रतिनी, पिशाचिनी, वैतालिनी आदि भगवती शिवा की अनुचरी हैं और उन्हीं के साथ निवास करती हैं ।
भगवान् शिव और भगवती शिवा के अनुचर-अनुचरी होने के कारण भूत-भूतिनी, प्रेत-प्रेतिनी, पिशाच-पिशाची, वेताल-वैताली, डाकिनी, शाकिनी आदि भी दैवी शक्तियों से सम्पन्न हैं और ये अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर उन्हें अभिलषित वर एवं वस्तुए प्रदान करने की सामर्थ्य रखते हैं। इसलिए इनकी सिद्धि के लिए विभिन्न मन्त्र, यन्त्र, जप, होम एवं पूजन की विधियों का आविष्कार तथा प्रचलन किया गया है।
इन सब की पूजादि का प्रचलन भी हमारे देश में सहस्रों वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ था और वह आप भी सर्वत्र पाया जाता है। जिन मनुष्यों पर इन जातियों के प्राणी प्रसन्न हो जाते हैं, उन्हें उनकी मनोभिला- षित प्रत्येक वस्तु प्रदान करते हैं। इनकी साधना कर्मफल दायनी है यथा इनकी साधना ना करके उच्च देव को पूजना चाहिए क्यूंकि मनुष्य जिस जाति अथवा देव का पूजन सांसारिक जीवन में करता है उसी लोक को उसकी प्राप्ति होती है
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विद्याएँ क्या हैं ?
स्वप्नावनी, मधुमती, पद्मावती, मृतसंजीवनी आदि विद्याए भी महाविद्याओं की ही प्रतिरूपा हैं। इन सभी के साधक आदिशक्ति की विभिन्न प्रकारों से आराधना की जाती है। सिद्ध हो जाने पर ये विद्याए साधक को अभिलषित वस्तु प्रदान करती हैं ।
शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, नक्षत्र, वास्तु, आयुर्वेद, वेद, कर्मकांड, ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र, हस्तरेखा, धनुर्विद्या आदि यह सभी परा विद्याएं हैं लेकिन प्राणविद्या, त्राटक, सम्मोहन, जादू, टोना, स्तंभन, इन्द्रजाल, तंत्र, मंत्र, यंत्र, चौकी बांधना, गार गिराना, सूक्ष्म शरीर से बाहर निकलना, पूर्वजन्म का ज्ञान होना, अंतर्ध्यान होना, त्रिकालदर्शी बनना, मृत संजीवनी विद्या, पानी बताना, अष्टसिद्धियां, नवनिधियां आदि अपरा विद्याएं हैं। किंतु मुख्यत: 14 विद्याओं की प्रमुख है।▪️

भैरव क्या हैं ?
भैरव को भगवान शिव का प्रधान सेवक और उन्ही का प्रतिरूप कहा गया है। वे भगवान शिव के अन्य अनुचर भूत-प्रेतादि गणों के अधिपति हैं। उनकी उत्पत्ति भगवती महामाया की कृपा से हुई है। मूलतः वे भगवान भूतनाथ महादेव एवं भगवती महादेवी के मंदिर ही शक्ति तथा सारस्वत हैं।
भैरव के ८ स्वरूपों का वर्णन पुराणों में किया गया है। यथा-बटुक भैरव, काल भैरव आदि ।
गुरु गोरखनाथ द्वारा प्रर्वार्तत नाथ-सम्प्रदाय में भैरव-पूजा का विशेष महत्त्व माना गया है और इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय का आदिकरण भी भगवान् भैरव तथा भगवती भैरवी को बताया गया है ।
भगवान् भैरव प्रसन्न होकर अपने साधक भक्तों को अभिलषित वर एवं वस्तुए प्रदान करने में समर्थ हैं, इसीलिए हमारे देश में भैरव पूजन की प्रथा भी सहस्रों वर्षों से प्रचलित है। आज भी भारतवर्ष के विभिन्न स्थानों में भैरव के मन्दिर पाये जाते हैं, जहाँ उनकी नियमित रूप से पूजा तथा उपासना की जाती है। प्राचान तन्त्रशास्त्रों में भैरव-साधन की विविध विधियों का उल्लेख पाया जाता है तथा अर्वाचीन ग्रंथों में लोकभाषा के माध्यम से भी भैरव-सिद्धि के अनेक उपाय कहे गये हैं ।
भैरव क्या हैं ? विस्तार से
भैरव को भगवान शिव का प्रधान सेवक और नीनी का प्रतिरूप कहा गया है। वे भगवान शिव के अन्य अनुचर भूत-प्रेतादि गणों के अधिपति हैं। उनकी उत्पत्ति भगवती महामाया की कृपा से हुई है। मूलतः वे भगवान भूतनाथ महादेव एवं भगवती महादेवी के मंदिर ही शक्ति तथा सारस्वत हैं।
भैरव के अनेक स्वरूपों का वर्णन पुराणों में किया गया है। यथा-बटुक भैरव, काल भैरव आदि ।
गुरु गोरखनाथ द्वारा प्रर्वार्तत नाथ-सम्प्रदाय में भैरव-पूजा का विशेष महत्त्व माना गया है और इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय का आदिकरण भी भगवान् भैरव तथा भगवती भैरवी को बताया गया है
मुख्य रूप से आठ भैरव माने गए हैं-
1. असितांग भैरव,
2. रुद्र भैरव,
3. चंद्र भैरव।
4. क्रोध भैरव,
5. उन्मत्त भैरव,
6. कपाली भैरव,
7. भीषण भैरव, 8.संहार भैरव।
