Issue of Braj Pradesh got lost due to lack of political attention

श्रीकृष्ण जन्मभूमि मथुरा
– फोटो : अमर उजाला

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इस लोकसभा चुनाव में ब्रज सियासत की धुरी में है। वजह-श्रीकृष्ण जन्मभूमि। पर, ब्रज प्रदेश का मुद्दा नदारद है। सियासी नुमाइंदों ने इसे तवज्जो नहीं दी। इससे मसौदा परवान चढ़ने के बजाय चित हो गया। अब यह हाशिये पर है। 

मांग में शामिल 16 जिलों में 13 संसदीय सीट आती हैं। 2019 के चुनाव में यह भाजपा के खाते में गई थीं। यूपी के अलावा राजस्थान, हरियाणा और मध्यप्रदेश के जिलों को मिलाकर ब्रज प्रदेश का खाका खींचा गया था। राजधानी आगरा तय हुई थी। नए राज्य की मांग को बड़े चेहरों की सहमतियों का संबल मिला था। इसमें डॉ. भीमराव आंबेडकर भी शामिल थे। राज्य पुनर्गठन आयोग के सदस्य केएम पणिक्कर ने भी प्रदेश के बंटवारे की संस्तुति की थी। 

ब्रज प्रदेश की मांग 1969 में राज्य असेंबली में की गई थी। भरतपुर की रॉयल असेंबली में भी यह मामला उठा था। 2014 में तेलंगाना राज्य बनने के बाद मुद्दा जोर पकड़ा। पर, मसौदे में शामिल यूपी के जिले हिंदू बहुल हैं। मुस्लिम आबादी 8.25 से 42.64 फीसदी है। हवा के रुख के साथ वोटरों का मिजाज बदलने से भी किसी पार्टी को यहां सत्ता हासिल करने की गुंजाइश कम लगी। इससे इन्होंने हाथ बांध लिए। एसआरके कॉलेज फिरोजाबाद के प्रो. प्रभाष्कर राय का कहना है कि छोटे-छोटे प्रदेशों से विकास को गति मिलती।

नए प्रदेश की मांग के पीछे ये वजहें

मथुरा से इलाहाबाद हाईकोर्ट की दूरी 533 और लखनऊ 369 किलोमीटर पर है। आने-जाने में खासा वक्त लगता है। बाकी जिलों से भी तकरीबन इसी के आसपास हिसाब बैठता है। केंद्र से विकास का अलग पैकेज मिलता। इससे विकास को नए आयाम मिलने लगते। प्रशासनिक नियंत्रण और बेहतर होता। पर्यटन समेत नए उद्योगों को बढ़ावा मिलता।

जिले बढ़ते गए, लड़ाई छोटी होती गई

पहले यूपी से आगरा, मथुरा, हाथरस, अलीगढ़, कासगंज और फिरोजाबाद ही इसमें शामिल थे। बाद में एटा भी जोड़ लिया गया। राजस्थान के भरतपुर और करौली थे। फिर धौलपुर और अलवर भी आ गए। हरियाणा का पलवल ही इसमें पहले था। बाद में बल्लभगढ़ जुड़ गया। एमपी का मुरैना जिला लिया गया था। फिर भिंड और ग्वालियर भी जोड़ लिए गए। जिले बढ़े, पर लड़ाई छोटी होती गई।



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