वर्ष 1853 में राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद झांसी का नियंत्रण कुछ वर्षों तक महारानी लक्ष्मीबाई के पास रहा। उनके शासनकाल में चोरी की भरपाई खजाने से होती थी। इसका जिक्र उनके शासनकाल के दौरान झांसी आए दो मराठी यात्रियों ने अपनी किताब ‘माझा प्रवास’ में किया है। दोनों यात्री कई साल तक झांसी में रहे। उनकी आंखों के सामने ही गदर हुआ। उनकी लिखी किताब इतनी लोकप्रिय हुई कि वर्ष 1950 में इसका अनुवाद हिंदी के जाने-माने साहित्यकार अमृतलाल नागर ने किया।

चोरी रोकने के लिए रानी ने बरुआसागर में डाला था डेरा

इस किताब में महारानी लक्ष्मीबाई के प्रशासनिक ब्योरों के साथ गदर का आंखों-देखा हाल दर्ज है। इतिहास विद आलोक शर्मा बताते हैं कि महारानी लक्ष्मीबाई के शासनकाल में कानून व्यवस्था को नियंत्रित रखने पर सबसे अधिक जोर रहा। उस समय चोरियों को रोकना सबसे बड़ी चुनौती थी। लक्ष्मीबाई की कड़ाई से कुछ वर्षों में ही चोरी, डकैती जैसे अपराध शून्य के बराबर हो गए। रानी लक्ष्मीबाई ने चोरी रोकने के लिए जगह-जगह प्रहरी तैनात किए थे। चोरी होने की घटना सामने आने पर उस प्रहरी को माल की नुकसानी भरनी पड़ती थी अथवा चोरी का नुकसान राज्य अपने खजाने से करता था। वह प्रजा का इतना ख्याल रखती थीं कि झांसी के निकट बरुआसागर में चोरों का आतंक खत्म करने के लिए वहां 15 दिनों तक रहकर उनका सफाया किया। बरुआसागर में प्रजा को निर्भय किया।

कम समय में ही संभाली राज्य की बागडोर

इतिहासविद आलोक शर्मा का कहना है कि रानी लक्ष्मीबाई पर आधारित कई किताबों में उनके प्रशासनिक सुधार के ब्योरे दर्ज हैं। उन्होंने बहुत कम समय के लिए राज्य की बागडोर संभाली लेकिन अहम सुधार किए। उनके शासन में न्याय का कार्य बेहद प्रगति से होता बताया गया। इस वजह से झांसी में लोग घर के किवाड़ खुले छोड़कर सोते थे। रानी लक्ष्मीबाई बेहद धर्म परायण महिला थीं। उनकी खास आस्था शहर के बाहर स्थित महालक्ष्मी मंदिर में थी। शत्रुओं के नाश व राज्य की सुरक्षा के लिए यहां कई अनुष्ठान कराए। लक्ष्मी मंदिर की देखभाल के लिए उन्होंने गोरा मछिया एवं कोछाभांवर गांव की माल गुजारी मंदिर के नाम कर दी। यह गांव भी अंग्रेजों ने छीन लिया। इससे महारानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से सबसे अधिक नाराज हुई थीं।

खलक खुदा का, मुलक बादशाह का, अमल लक्ष्मीबाई का…

माझा प्रवास में झांसी में हुए गदर का जिक्र करते हुए लिखा गया कि 1857 को सैनिक विद्रोह में काली पलटन ने अंग्रेजों को हराकर भगा दिया। रानी महल के सामने रानी को पहुंचाकर फिर से उनको एक बड़े जुलूस के साथ किले में लाया गया। जून 1857 से मार्च 1958 तक रानी लक्ष्मीबाई के हाथ में दोबारा से झांसी की बागडोर आ गई। उस दौरान झांसी के हर चौराहे एवं गली में मुनादी करते हुए सैनिक घूमे कि खलक खुदा का, मुलक बादशाह का, अमल लक्ष्मीबाई का। इसके बाद लक्ष्मीबाई शासक मान ली गईं। रानी लक्ष्मीबाई ने आपात स्थिति से निपटने की तैयारी कर ली थी जिससे किले के भीतर खाने-पीने की तकलीफ न हो।

मराठी यात्री विष्णु भट्ट महारानी लक्ष्मीबाई के शासन काल में झांसी आए थे। कई साल वह झांसी में रहे। 1887 में उन्होंने माझा प्रवास लिखी लेकिन अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई के नाम से किसी किताब को उस दौरान छपने नहीं दिया। इसके बाद 1907 में सबसे पहले यह किताब प्रकाशित हुई। यह गदर की चुनिंदा प्रामाणिक पुस्तकों में एक है। इस वजह से हिंदी में भी इसका अनुवाद किया गया।– आलोक शर्मा, इतिहासविद एवं शोध कर्ता



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