झांसी। नगर निकाय चुनाव का प्रचार अब अपने अंतिम दौर की ओर बढ़ रहा है। महापौर पद के उम्मीदवारों ने जीत के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी है। प्रचार के दौरान उम्मीदवार पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं। किसी भी कीमत पर प्रत्याशी चुनाव जीतने की कोशिश में जुटे हैं लेकिन, चुनाव जीतने के बाद जब वह नगर निगम पहुंचेंगे तब उनको विवेकाधिकार कोष से महज पांच हजार रुपये ही खर्च करने का अधिकार होगा। विधायक, सांसद की तरह वह अपने विवेक से करोड़ों रुपये की निधि खर्च नहीं कर सकते बल्कि हर काम की स्वीकृति के लिए उनको अफसरों की सहमति का इंतजार करना होगा।

नगर निगम अधिनियम-1959 में महापौर को कोई वित्तीय अधिकार नहीं दिया गया। अधिनियम सिर्फ महापौर को प्रत्येक वर्ष पांच हजार रुपये खर्च करने का अधिकार देता है, लेकिन इस रकम को खर्च करने में भी कई सारी तकनीकी बाधाएं होती हैं। इस वजह से यह रकम भी खर्च नहीं हो पाती। पिछले दो वित्तीय वर्ष के दौरान महापौर का विवेकाधीन कोष खर्च नहीं हो सका। महापौर के पास विधायक एवं सांसद की तरह कोई निधि नहीं होती हालांकि अवस्थापना निधि एवं केंद्रीय वित्त आयोग के कार्य महापौर की अध्यक्षता वाली कमेटी से कराए जाते हैं। इसमें भी महापौर की मर्जी नहीं चलती बल्कि कई सदस्य होते हैं। उनकी सहमति से ही यह कार्य तय होते हैं। नगर निगम अधिनियम के मुताबिक 10 लाख से अधिक के कार्यों में महापौर की सहमति अनिवार्य होती है लेकिन, महापौर अपनी इच्छा से कोई कार्य नहीं करा सकते।

वित्तीय ताकत न होने के साथ ही महापौर के पास कोई प्रशासनिक ताकत भी नहीं होती। महापौर किसी कर्मचारी के खिलाफ सीधी कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। अधिकतम किसी कर्मचारी के खिलाफ कार्रवाई की संस्तुति कर सकते हैं। प्रशासनिक ताकत न होने से ही अक्सर नगर निगम अफसरों से महापौर के तकरार की बात सामने आती रहती है। हालांकि महापौर को प्रोटोकॉल के लिहाज से महानगर का प्रथम नागरिक माना जाता है।

74 वां संविधान संशोधन लागू होने का इंतजार

सरकार ने पंचायती राज की तरह नगर निकायों को मजबूत करने के लिए 74वां संविधान संशोधन स्वीकार तो कर लिया लेकिन, उसकी सिफारिशों को आज तक लागू नहीं किया गया। इन सिफारिशों के लागू होने से ही महापौर एवं पार्षदों को वित्तीय एवं प्रशासनिक अधिकार मिल सकेगा।



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