Light soil lamps on this Diwali potters houses will be illuminated

मिट्टी के दीये
– फोटो : अमर उजाला

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परंपरा पर हावी होती आधुनिकता की वजह से कुम्हारों के समक्ष रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। बढ़ती लागत, मांग में कमी की वजह से कुम्हारों की अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी है। युवा अपने पारंपरिक पेशे से मुंह मोड़ने लगे हैं। झालरों और डिजाइनर दीयों के बढ़ते चलन की वजह से मिट्टी के पारंपरिक दीयों की मांग कम हो गई है। हालांकि, धार्मिक महत्व होने के कारण ये आज भी प्रासंगिक हैं। इतना जरूर है कि इन दीयों की रोशनी इन्हें बनाने वाले कुम्हारों के घर तक नहीं पहुंच पा रही। 

लागत बढ़ी, मुनाफा कम 

बरेली में दीपावली के लिए दीये तैयार कर रहे कैंट निवासी रघुवीर प्रजापति बताते हैं कि यह उनका पुश्तैनी काम है। पिता हरद्वारी लाल और बाबा मोतीराम भी दीये बनाते थे। वह दीये बनाने के लिए मिट्टी बिथरी चैनपुर से मंगवाते हैं। दीयों को पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाली लकड़ी, उपले भी महंगे हो गए हैं। रंगों का भाव भी आसमान छू रहा है। इससे दीयों की लागत बढ़ गई है, मुनाफा कम हो गया है। 

रघुवीर बताते हैं कि उन्होंने समय के साथ बदलाव किया है। ग्राहकों की मांग के अनुरूप अब वह भी डिजाइनर दीये बनाने लगे हैं। उनके मुताबिक, अब ग्राहक डिजाइनर दीयों की मांग करते हैं। हालांकि, इनकी बिक्री सीमित होती है। ज्यादा बिक्री परंपरागत दीयों की ही होती है।



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