
रायबरेली में लगे उद्योग व (नीचे) बकुलाही ड्रेन।
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गांधी परिवार का गढ़ है तो खास बात होगी। विकास होगा। तरक्की की तस्वीर होगी। खुशहाली होगी। सड़कें चकाचक, स्वास्थ्य सुविधाएं भी बेहतर, लेकिन जमीनी स्तर पर हालात जुदा हैं। फिलहाल यहां सियासी सरगर्मी है। चर्चा में है कि गांधी परिवार की विरासत आखिर संभालेगा कौन? उत्सुकता के बीच रायबरेली का रण रोमांचक होते जा रहा है। इस सब के बीच आम लोगों के मुद्दे भी जमीन तलाशने लगे हैं। जिनकी पड़ताल कर रही है धर्मेश त्रिवेदी की रिपोर्ट…
उद्योग: इंदिरा गांधी के समय यहां एक के बाद एक उद्योग खुले, जिससे युवाओं को स्थानीय स्तर पर ही रोजगार मिला। पलायन रुका और खुशहाली भी आई। लेकिन वक्त के साथ उद्योग सिमटते गए। बीते 43 साल में 103 से अधिक छोटे-बड़े उद्योग बंद हुए। इससे आज युवाओं को परदेश जाना पड़ रहा है।
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एनटीपीसी की राख : ऊंचाहार एनटीपीसी परियोजना की अरखा राख तालाब की उड़ती धूल लोगों को बीमार कर रही है। सीपेज के पानी से सैकड़ों बीघे जमीन बंजर हो गई। समस्या से निजात के लिए किसान करीब 20 वर्ष से आवाज उठा रहे हैं। राख से दम घुट रहा है। यहां हैंडपंप भी दूषित पानी दे रहे हैं।
रिंग रोड: सांसद सोनिया गांधी के प्रयास से निर्माणाधीन रिंगरोड पर 10 वर्ष बाद भी फर्राटा भरने का सपना हकीकत नहीं बन सका। निर्माण वर्ष 2014 में शुरू हुआ था। काम कराने के लिए कई कंपनियां आईं, लेकिन काम अधूरा छोड़कर सभी भाग गईं। धीमे निर्माण पर हाईकोर्ट भी अफसरों को फटकार चुका है।
बकुलाही ड्रेन : बकुलाही ड्रेन किसानों के लिए अभिशाप बन गई है। असल में रोहनिया गांव के पास से बकुलाही ड्रेन निकली है। लगभग 142 किमी लंबी ड्रेन सिल्ट से पट गई। इससे सई नदी तक बहकर जाने वाला पानी किसानों के खेत में रुकने लगा। इससे करीब एक हजार हेक्टेयर जमीन पर खेती बंद हो गई है।
उद्योग बंद हुए
स्पीनिंग मिल — 2012
शीना होमटेक — 2005
अपकॉन केबल्स — 2001
रावल पेपर मिल — 1998
मोदी कॉर्पेट — 1998
वेस्पा — 1995
मित्तल फर्टिलाइजर — 1992
यूपी टायर ट्यूब — 1992
कृष्णा पेपर मिल — 1983
सीतापुर पेपर मिल — 1982
गंगा एस्बेस्टेस — 1980