
सांकेतिक तस्वीर…
– फोटो : अमर उजाला
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फसल बेहतर लेने की चाह में किसान नादानी कर रहे हैं। प्रदेश भर में रासायनिक उर्वरकों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। प्रदेश के 15 जिले ऐसे हैं जहां नाइट्रोजन की ओवरडोज आने वाले समय में संकट खड़ा कर सकती है। मिट्टी और मानव दोनों के लिए ही यह अधिकता हानिकारक है। कृषि विभाग ने इन जिलों में सर्वे करते हुए रिपोर्ट शासन को भेजी है। कहा गया है किसानों को इस बाबत जागरूक करना ही होगा ताकि भविष्य की मुसीबत को रोका जा सके।
उत्तर प्रदेश में फसलों के रकबे और उपज दोनों में लगातार बढोतरी की कवायद चल रही है। हालांकि सरकार प्राकृतिक खेती के लिए लिए अभियान चला रही है पर किसान उपज ज्यादा लेने के लिए रासायनिक उर्वरकों पर ज्यादा ही भरोसा कर रहे हैं। इसका असर यह आ रहा है कि जमीन की उर्वरा शक्ति घट रही है। सूक्ष्म तत्वों की कमी तथा अन्य तत्वों का संतुलन गड़बड़ा रहा है। रासायनिक उर्वरकों को लेकर कृषि विभाग ने सभी जिलों में सर्वे कराते हुए रिपोर्ट तैयार की है। इसके लिए संयुक्त निदेशक उर्वरक डा. अमित पाठक ने इसके लिए कृषि विभाग के आला अधिकारियों के सामने इसका प्रजेंटेशन करते हुए रिपोर्ट पेश की है।
चार फसलों पर फोकस, यह है मानक
कृषि विभाग ने ज्यादा रकबे वाली मुख्यत: चार फसलों पर फोकस किया है। धान, गन्ना, आलू, और गेहूं की फसल पर खास तौर से नाइट्रोजन के स्तर की जांच की गई है। डा. पाठक के मुताबिक धान में नाइट्रोजन का स्तर 150, गन्ने में 180, आलू में भी 180 तथा गेहूं में 150 एन प्रति हेक्टेयर होना चाहिए। किसान इसकी पूर्ति के लिए एनपीके और विशुद्ध यूरिया का प्रयोग करते हैं। सर्वे में सामने आया है कि 15 जिलों में मानक से ज्यादा नाइट्रोजन का प्रयोग किया जा रहा है। इनमें 7 जिले शामली, संभल, फर्रुखाबाद, हापुड़, कन्नौज, प्रयागराज और मेरठ में तो यह आंकड़ा 200 के पार चला गया है।
यह है ज्यादा उर्वरक का प्रयोग करने वाले जिले और नाइट्रोजन खपत का हिसाब-किताब…
- शामली 234
- संभल 219
- फर्रुखाबाद 216
- हापुड़ 208
- कन्नौज 204
- मेरठ 203
- प्रयागराज 201
- अमरोहा 195
- रायबरेली 189
- बाराबंकी 176
- शाहजहांपुर 176
- मुरादाबाद 171
- कौशांबी 169
- एटा 167
- बिजनौर 163
मानव स्वास्थ्य के लिए भी बेहद खतरनाक
अहम बात यह है कि किसान चाहे उर्वरक का कितना भी प्रयोग करें पौधे इसमें से 30 फीसदी यूरिया का उपयोग करते हैं। फसल की मांग से अधिक उपयोग में लाया गया नाइट्रोजन वाष्पीकरण और रिसाव के जरिए बेकार चला जाता है। नाइट्रोजन का अत्यधिक उपयोग जलवायु परिवर्तन और भूजल प्रदूषण को बढ़ावा देता है। यूरिया जमीन में रिस जाता है तथा नाइट्रोजन से मिलकर नाईट्रासोमाईन बनाता है जिससे दूषित पानी को पीने से कैंसर, रेड ब्लड कणों का कम होना और रसौलियाँ बनना जैसी बीमारियां होती हैं। डा. पाठक बताते हैं कि चूंकि डीएपी खाद रॉक फास्फेट के रूप में आता है जिसका शोधन कर फास्फोरस प्राप्त किया जाता है। शोधन के दौरान इसमें हैवी तत्व जैसे कोवाल्ट, कैडमियम और यूरेनियम आदि रह जाते हैं जिनके प्रयोग से मिट्टी तथा पानी दूषित होता है। मिट्टी बेकार होने की स्थिति में पहुंच जाती है।
मिट्टी की जांच कराएं
मृदा परीक्षण के लिए प्रदेश में तहसील व विकासखंड स्तर पर उप संभाग में प्रयोगशालाएं बनाई गई हैं। उनमें 12 बिंदुओं की जांच कराई जा रही है जिनमें। नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, सल्फर, जिंक, बोरान आदि की मिट्टी की जांच कराई जाती है। किसानों को यह जांच कराकर देखना चाहिए है मिट्टी में किस तत्व की कमी है। उसी हिसाब से खेती में उर्वरक का प्रयोग करें। किसान इसमें कोताही बरतते हैं जिसका नुकसान उठाना पड़ता है। डा. पाठक के मुताबिक फसल बोने के 40 दिन बाद नैनो यूरिया का प्रयोग करें। यह कम लगता है और ज्यादा समय तक चलता है।
अन्य फसलों का भी सर्वे करें : एपीसी
कृषि उत्पादन आयुक्त मनोज कुमार सिंह ने कृषि विभाग को निर्देश दिए हैं कि वह अन्य फसलों का भी सर्वे कर लें। उसी आधार पर कार्ययोजना तैयार किसानों को जागरूक करें। बताया जाए कि उर्वरक की कमी नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि मांग से ज्यादा इसका इस्तेमाल किया जाए। इससे नुकसान है।