महाकुंभ का आयोजन हर 12 साल में होता है। यह वह अवसर होता है, जब लाखों लोग अपनी आत्मा की शुद्धि और मोक्ष के लिए प्रयागराज की पवित्र गंगा में डुबकी लगाते हैं। लक्ष्मीकांत ने भी इस अवसर का उपयोग करते हुए कल्पवास का संकल्प लिया। उनका मानना है कि ” कल्पवास, सन्यास में प्रवेश का इंटर्नशिप है”। यह वाक्य उनके आध्यात्मिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है। जिसमें वह कहते हैं कि सन्यास की ओर बढ़ने से पहले व्यक्ति को आत्म-निरीक्षण और साधना के माध्यम से अपनी आत्मा को शुद्ध करना होता है। कल्पवास, उनके लिए इस आंतरिक यात्रा की शुरुआत है।
उनका जीवन न केवल उनकी व्यक्तिगत साधना का प्रतीक है, बल्कि उनके परिवार का भी आदर्श है। उनका बेटा जज है। यह उनकी कठोर मेहनत और संस्कारों का ही फल है। उनकी पत्नी का देहांत हो चुका है। यह दुखद घटना उनके जीवन में एक बड़ी चुनौती रही है। लेकिन, उन्होंने इस दुख को अपने जीवन का हिस्सा मानते हुए आत्म-समर्पण और साधना के मार्ग पर चलने का निर्णय लिया।
कल्पवास के दौरान वह गंगा के किनारे साधना कर रहे हैं। जहां वह भौतिक दुनिया से दूर रहते हुए अपने भीतर की गहराई में उतरने का प्रयास कर रहे हैं। वह सिर्फ अपने आत्मा की शुद्धि के लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवता के कल्याण के लिए भी इस तपस्या को कर रहे हैं। इस दौरान वह एक साधक की तरह दिन-रात ध्यान, पूजा और मानसिक शांति में लीन रहते हैं। उनका यह कदम दिखाता है कि भौतिक सफलता के बावजूद आत्मा की शांति और मोक्ष की तलाश हमेशा बनी रहती है।
लक्ष्मीकांत पांडेय का जीवन हम सभी को यह सिखाता है कि भौतिक दुनिया में सफलता के बावजूद, आत्मा की शांति और मोक्ष की खोज सबसे महत्वपूर्ण है। उनका कल्पवास के लिए निर्णय यह सिद्ध करता है कि वास्तविक सुख और शांति भीतर से आती है, और जो व्यक्ति अपने आत्मा को शुद्ध करता है, वह असल में सच्चे मोक्ष की ओर बढ़ता है।