मुजफ्फरनगर।(Muzaffarnagar) नंगला मंदौड पंचायत के भड़काऊ भाषण एवं आचार संहिता उल्लंघन के मामले में राजनीतिक हलचल तेज हो गई है। सांसद हरेन्द्र मलिक, पूर्व सांसद डॉ. संजीव बालियान, साध्वी प्राची, हिंदूवादी नेता बिटटू सिखेडा और पूर्व विधायक उमेश मलिक सहित अन्य नेताओं ने एमपी/एमएलए कोर्ट में पेशी दी। इस मामले ने न केवल स्थानीय राजनीति को गरमाया है, बल्कि इससे जुड़ी घटनाओं ने पूरे उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी हलचल मचा दी है।

2013 का दंगों का काला इतिहास

इस सबकी जड़ें 2013 में हुई सांप्रदायिक दंगों में हैं, जब जानसठ क्षेत्र के गांव कवाल में एक हत्या के बाद साम्प्रदायिक तनाव बढ़ गया था। 27 अगस्त 2013 को शाहनवाज नामक युवक की हत्या के बाद, उसके ममेरे भाई सचिन और गौरव की भी हत्या कर दी गई थी। इस दंगे में कई घर जलाए गए और कई लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा। यह घटना न केवल स्थानीय स्तर पर बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक तनाव का कारण बनी।

उस समय के माहौल को देखते हुए, 31 अगस्त 2013 को नंगला मंदौड के इंटर कॉलेज में शोक सभा का आयोजन किया गया। इस सभा में शामिल हुए नेताओं के भाषणों पर बाद में विवाद उठ गया, जिसमें आरोप लगाया गया कि उन्होंने भड़काऊ भाषण दिए और आचार संहिता का उल्लंघन किया। इसी मामले में सिखेडा पुलिस ने डॉ. संजीव बालियान समेत 14 लोगों के खिलाफ FIR दर्ज की थी।

कोर्ट में पेशी: राजनीतिक ड्रामा

अब, इन सभी नेताओं की एमपी-एमएलए कोर्ट में पेशी ने एक बार फिर से इस मामले को सुर्खियों में ला दिया है। यह पेशी न केवल राजनीतिक समीकरणों को प्रभावित कर सकती है, बल्कि इसने कार्यकर्ताओं और समर्थकों में भी उथल-पुथल मचाई है। समर्थक इन नेताओं के पक्ष में रैलियाँ निकाल रहे हैं, जबकि विपक्षी दल इस मामले को भुनाने में जुट गए हैं।

नेताओं की प्रतिक्रिया

इस पेशी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सांसद हरेन्द्र मलिक ने कहा, “हमने हमेशा से ही समाज की भलाई के लिए काम किया है। इस तरह के मामलों का राजनीतिकरण करना गलत है।” वहीं, पूर्व सांसद डॉ. संजीव बालियान ने कहा, “मैंने कोई भड़काऊ भाषण नहीं दिया, और यह एक राजनीतिक साजिश है।”

साध्वी प्राची ने भी अपनी बात रखी, उन्होंने कहा, “हमारा काम समाज को जोड़ना है, और हम किसी भी तरह की हिंसा के खिलाफ हैं।” इन बयानों ने राजनीतिक पारा बढ़ा दिया है और यह सवाल उठाया है कि क्या इन नेताओं को सच में न्याय मिलेगा या फिर यह सिर्फ एक राजनीतिक खेल है।

सांप्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि में राजनीति

उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक दंगों का इतिहास बहुत पुराना है, और ये दंगे अक्सर राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल होते हैं। 2013 का कवाल दंगा भी इसी प्रवृत्ति का एक उदाहरण है। राजनीतिक दल अक्सर ऐसे मामलों को अपने फायदे के लिए भुनाते हैं, जिससे समाज में तनाव बढ़ता है। इस बार भी ऐसा ही देखने को मिल रहा है, जहां एक बार फिर से राजनीतिक मुद्दे सांप्रदायिक पहचान के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं।

 राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण

इस मामले ने एक बार फिर से यह साबित कर दिया है कि राजनीति और समाज में संवेदनशील मुद्दों का कितना गहरा संबंध है। नेताओं की पेशी केवल कानूनी प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह सामाजिक और राजनीतिक समीकरणों का भी एक अहम हिस्सा है। अब देखना यह होगा कि क्या इस मामले का कोई स्थायी समाधान निकलेगा, या फिर यह केवल एक और राजनीतिक ड्रामा बनकर रह जाएगा।

इस प्रकार, मुजफ्फरनगर का यह मामला न केवल एक कानूनी प्रक्रिया है, बल्कि यह उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नई बहस का आरंभ भी कर रहा है। सभी की निगाहें इस पर हैं कि आगे क्या होगा और राजनीतिक नेताओं के साथ-साथ समाज में भी इस घटना के क्या परिणाम होंगे।

यह मामला बताता है कि राजनीतिक शह-मात का खेल किस तरह से समाज को प्रभावित कर सकता है। राजनीति में सच्चाई और नैतिकता की एक अलग भूमिका होनी चाहिए, और यह आवश्यक है कि राजनीतिक नेता अपनी जिम्मेदारियों को समझें और समाज को भड़काने वाले भाषण देने से बचें।



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