Pain of Emergency: 'No appeal, no lawyer and no argument!

झांसी। 1975 में आपातकाल के दौरान जिसे चाहा, उसे पुलिस ने जेल में बंद कर दिया। फिर चाहें कोई शिक्षक हो या विद्यार्थी। जेल में तमाम यातनाएं दी गईं। समाचार पत्र मांगने पर लाठीचार्ज किया गया। अखबार बेचने पर नाखून उखाड़े गए। जेल जाने वाले परिजनों को भी डराया-धमकाया गया। माफीनामा लिखने के लिए मजबूर किया गया। मगर हमने हिम्मत नहीं हारी। हर जुल्म और यातना सहन की। अमर उजाला से बातचीत के दौरान आपातकाल के दौरान का ये दर्द लोकतंत्र सेनानियों ने बताया किया है।
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पुरानी पसरट निवासी हरिमोहन गुप्ता (79) आपातकाल के दौरान करीब 18 महीने जेल में रहे। उन्होंने बताया कि वह बीबीसी में शिक्षक थे। साथ ही संघ के शहर शारीरिक प्रमुख थे। 16 अगस्त 1975 को सुबह साढ़े छह बजे साइकिल से विद्यालय जा रहे थे। तभी मिठाई वाली गली में पुलिस ने उन्हें रोक लिया और कोतवाली चलने के लिए कहा। जुर्म पूछा तो बोले कि सरकार के खिलाफ बैठक कर लोगों को भड़का रहे हो। आपातकाल का माहौल नो अपील, नो वकील और नो दलील जैसा था। कहा कि जेल में आपातकाल के दौरान पकड़े गए लोगों को सी श्रेणी में रखा जाता था। उन्हें आम कैदियों की तरह खाने में दूध आदि नहीं दिया जाता था। कहा कि उस काल में संघ ने समाज के सहयोग से जेल गए लोगों की हिम्मत को टूटने नहीं दिया। तरह-तरह के उदाहरण देकर हमारा जज्बा मजबूत रखा जाता था। हमसे कहा जाता था कि अत्याचार हमेशा नहीं रहेगा, जेल से छूटेंगे जरूर। सात जनवरी 1977 को वह जेल से छूटे।
ब्यूरो



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