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संवाद न्यूज एजेंसी, आगरा
Updated Wed, 02 Oct 2024 12:07 AM IST

सोरोंजी। श्राद्ध पक्ष के अंतिम दिन पितृ विसर्जन अमावस्या मंगलवार को बड़ी संख्या में श्रद्धालु पितरों के श्राद्ध व तर्पण के लिए पहुंचेंगे। श्राद्ध पक्ष के दौरान अलग-अलग तिथियों में श्राद्धकर्म के लिए बड़ी संख्या में लोग पहुंचे, लेकिन अमावस्या की तिथि का विशेष महत्व है। ऐसी स्थिति को देखते हुए तीर्थपुरोहितों व आचार्यों ने श्राद्ध पूजा के लिए तैयारियां की हैं।तीर्थनगरी में पौराणिक काल से श्राद्धपूजा की परंपरा है। सतयुग, द्वापर, त्रेता युग में भी श्रद्धालुओं ने यहां पहुंचकर श्राद्ध पूजा की हैं। 500 वर्ष पूर्व के रिकॉर्ड तीर्थपुरोहितों की बहियों में दर्ज हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान व अन्य प्रांतों के श्रद्धालु व क्षेत्रीय लोग यहां श्राद्ध पूजा आदि के लिए आते हैं। वरिष्ठ तीर्थपुरोहित पंडित भारत किशोर दुबे ने बताया कि गर्ग संहिता व वराह पुराण के अनुसार अयोध्या से मथुरा जाते समय दशरथ नंदन भगवान श्रीराम के शूकरक्षेत्र में निवास, स्नान एवं पितरों का तर्पण व पिंडदान करने का उल्लेख है। गर्ग संहिता के अनुसार पांडु नंदन अर्जुन के पौत्र अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित की सर्पदंश से अकाल मृत्यु के पश्चात परीक्षित पुत्र जनमेजय ने शूकरक्षेत्र आकर अपने पूर्वजों का श्राद्ध किया था। ब्राह्मणों को अन्न, वस्त्र, आभूषण आदि का दान दिया था। धार्मिक अनुष्ठान विशेषज्ञ पंडित प्रद्युम्न निर्भय ने बताया कि आश्विन कृष्ण अमावस्या के दिन महालयावसान होता है। इस दिन सभी पितरों का तर्पण, पिंडदान व ब्राह्मण भोजनादि श्राद्धकर्म करना चाहिए। पितृपक्ष में सभी पितर पितृलोक से पृथ्वीलोक पर अपने-अपने पुत्रों व परिजनों से तिल-तोय ग्रहण करने आते हैं। तदोपरांत तिल-तोय से तृप्त होकर आशीर्वाद देकर फिर से अपने लोक को चले जाते हैं। प्रत्येक सनातन धर्मी परिवार को आश्विनी अमावस्या के दिन मध्याह्न वेला में श्राद्धकर्म करना चाहिए। दाएं हाथ में दो कुशों की व बाएं हाथ में तीन कुशों की पवित्री धारण कर तीन कुशों से बने मोटक के द्वारा चावल, जौ व कालेतिल से तर्पण करना चाहिए। उसके बाद अज्ञात पितरों तथा भीष्म पितामह का तर्पण करना चाहिए। अंत में भगवान सूर्य को जल प्रदान कर पितरों से आशीर्वाद लेकर उनका विसर्जन करना चाहिए।