Politics of Appeasement vs Polarization Was confused in beginning and then BJP changed its stance

लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा में नरेंद्र मोदी।
– फोटो : narendramodi.in

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6 अप्रैल 1980 को जब भारतीय जनता पार्टी बनी, उस दौर में मुस्लिम तुष्टीकरण चरम पर था। ज्यादातर दलों को लगता था कि मुस्लिमों को रिझाए बिना राजनीतिक सफलता हासिल करना मुश्किल है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मुख्य चिंता राजनीति में मुस्लिम वर्चस्व की थी। संघ इसे तोड़ना चाहता था।

लोहियावादी मधु लिमये जैसे नेताओं को शायद यह डर था कि यदि मुस्लिम वोट खिसक गया तो कांग्रेस से निपटना मुश्किल होगा। संघ और विश्व हिंदू परिषद सहित कई संगठन मुस्लिम तुष्टीकरण नीति पर हमलावर थे। इन संगठनों को मुस्लिम मानस पसंद नहीं करता था। जनता पार्टी से जनसंघ के नेता बाहर हों, उससे पहले ही सतर्क संघ ने हिंदुओं की लामबंदी शुरू कर दी।

कांग्रेस से ही तो नहीं ली सीख

अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद, मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि और ईदगाह और काशी में काशी-विश्वनाथ मंदिर बनाम ज्ञानवापी मस्जिद विवाद चर्चा में थे। संघ से जुड़े संगठन एवं अन्य हिंदू संगठन इनकी मुक्ति की मांग करते रहते थे। शीर्ष स्तर पर काफी मनन-मंथन के बाद संघ ने सबसे पहले अयोध्या विवाद को लेकर आंदोलन का निश्चय किया। उसने अपने पांच प्रचारकों अशोक सिंहल, महेश नारायण सिंह, मोरोपंत पिंगले, आचार्य गिरिराज किशोर, ओंकार भावे को कार्ययोजना बनाने पर लगा दिया। 

राम और हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगने का सिलसिला कांग्रेस ने ही शुरू किया। 1948 में विधानसभा की फैजाबाद सीट पर हुए उपचुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने कांग्रेस प्रत्याशी बाबा राघवदास के समर्थन में राम और हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगा। नतीजा यह हुआ कि प्रख्यात समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव हार गए। बाबा राघव दास उन पांच लोगों में शामिल थे, जिन पर अयोध्या में विवादित ढांचे में रामलला का विग्रह रखने का आरोप लगा था।



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