Power struggle 2024: Ram changed the direction of politics

अयोध्या में रामलला का दिव्य स्वरूप

विस्तार


अस्सी के दशक में विपक्ष का नारा था, ‘कांग्रेस हटाओ-देश बचाओ’ या  ‘इंदिरा हराओ-देश बचाओ’। लगभग चार दशक बाद विपक्ष नारा लगा रहा है,  ‘भाजपा हटाओ-देश बचाओ’ या ‘मोदी-हराओ देश बचाओ’। चार दशक का वक्त कोई कम नहीं होता। पर, नारे एक जैसे हैं। लक्ष्य भी एक-सा है। सत्तारूढ़ दल को हराने के लिए विपक्षी एकजुटता की जद्दोजहद जारी है। बदले हैं तो सिर्फ किरदार। हां! कुछ का दिल बदला, तो दल भी बदल लिए। नारों के पात्र बदल गए। सियासी दलों का मतदाताओं पर फोकस का तौर-तरीका बदल गया। मतदाताओं की प्राथमिकता बदल गई। राजनेताओं की भूमिका भी बदल गई। तब भाजपा अस्तित्व के संघर्ष से जूझ रही थी और अब कांग्रेस जूझ रही है।

 वामपंथी खेमा अस्त हो गया और समाजवाद भी पस्त हो चुका है। जातीय राजनीति ने उछाल मारा तो बसपा जैसे दल उभर गए। क्षणिक उभार के बाद हिंदुत्व  की लहर के नीचे ये सब दबते चले गए। पर, यह सब रातों-रात नहीं हो गया। इस सबके पीछे एक लंबी कहानी है। बदलाव की इस कहानी का विश्लेषण करें तो केंद्र में दिखता है-अयोध्या का श्रीराम जन्मभूमि मंदिर, जिसने हिंदुओं को एक राजनीतिक ताकत के रूप में बदल दिया। मुस्लिम वोटों के वर्चस्व को तोड़ दिया। यही नहीं राजनीतिक परिदृश्य को भी बदल दिया।  

अस्सी का दशक था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अयोध्या स्थित ‘श्रीराम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद’ के संघर्ष को मुकदमेबाजी और 20वीं सदी की शुरुआत तक हुए खूनी संघर्ष से इतर जन आंदोलन का रूप देने की रणनीति बनाई। हिंदुओं के जनजागरण और उन्हें एकजुट करने के लक्ष्य पर काम कर रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कदाचित यह भांप लिया था कि जनता पार्टी में समाजवादी खेमे के कुछ नेताओं का जनसंघ पर दोहरी सदस्यता को लेकर उठाया गया सवाल सामान्य बात नहीं है। इसके पीछे मुस्लिम मतदाताओं को खुश रखने की चिंता है। 

 संघ ने भांप लिया था कि यह स्थिति उसे अपनी दृष्टि, दिशा और लक्ष्य के आधार पर काम करने वाला फिर से नया राजनीतिक संगठन खड़ा करने के लिए आगाह कर रही है। ऐसा किए बिना न तो उसका  ‘समान नागरिक संहिता’ का लक्ष्य पूरा होगा और न ‘एक देश-एक निशान-एक विधान’ का संकल्प पूरा होगा। न राजनीति को मुस्लिम वर्चस्व से मुक्त किया जा सकेगा और न तुष्टीकरण पर विराम लगेगा। 

दोहरी सदस्यता का विवाद

आपातकाल के बाद 1977 में चुनाव की घोषणा हुई। इसकी अलग कहानी है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पराजित करने के लिए ज्यादातर विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी गठित की। चुनाव में कांग्रेस हार गई। जनसंघ (भाजपा का पुराना नाम) का भी जनता पार्टी में विलय हो चुका था। पर,  कुछ ही दिन बाद जनता पार्टी में शामिल समाजवादी घटक के नेता मधु लिमये ने दोहरी सदस्यता का सवाल उठाते हुए जनसंघ के नेताओं के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नाता तोड़ने की मांग उठा दी। अटल बिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख, लालकृष्ण आडवाणी के तर्कों के बावजूद जब लिमये नहीं माने, तो जनसंघ घटक के नेताओं ने 6 अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी बना ली। दोहरी सदस्यता का विवाद उठने के साथ ही संघ के नेतृत्व ने शायद इस विवाद का नतीजा भी भांप लिया था।    क्रमश:… 



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