खजुराहो हाईवे पर बसा मऊरानीपुर तहसील का रानीपुर कस्बा। रविवार की सर्द दुपहरी में खिली नर्म धूप। वक्त करीब दो बजे। कस्बे की गली में एक चबूतरे पर बैठीं तीन महिलाएं। उम्र तकरीबन साठ पार। अपनी बूढ़ीं अंगुलियों से लयबद्ध तरीके से सूत को जुंबिश दे रही हैं। पूछने पर बताती हैं, बॉबिन में सूत भर रही हैं। इसके बाद इसे पावरलूम में लगाया जाएगा। फिर तैयार होगा रानीपुर का मशहूर गमछा, गलीचा और बेडशीट।
दरअसल, रानीपुर और उसके पास के सटे गांव देवरीसिंहपुरा के कपड़ों की कहानी लगभग सभी कपड़ा उद्योगों से मिलती-जुलती है। महंगी बिजली, बाजार न मिल पाना, ब्रांडिंग न होना जैसे कुछ बुनियादी दिक्कतों की वजह से प्रभावित यह उद्योग एक बार सौर ऊर्जा की बदौलत उड़ान भरने को तैयार है।
यहां के कपड़ों और पावरलूम को देश के कई हिस्सों में भेजने वाले कोरी विजय कंचन आंखों में चमक लिए बताते हैं कि वह भी क्या वक्त था। हमारे कपड़ों की धूम थी। वह बताते हैं, ग्वालियर में जेसी मिल बंद होने के बाद कई कारीगर रानीपुर आ गए। यहां उन्होंने कपड़े बनाने शुरू किए। सस्ता होने की वजह से कपड़े ने रंग जमा लिया। देखते ही देखते रानीपुर टेरीकॉट ने धूम मचा दी।
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दरी बुनते राजेश
– फोटो : अमर उजाला
यह दौर तकरीबन 1986 से 1996 तक रहा। फिर मिल के कपड़ों पर एक्साइज ड्यूटी हटा ली गई। इससे मिल का कपड़ा भी सस्ता हो गया। फिर इसके बाद शुरू हुआ पलायन का दौर। यहां जब काम था तो अच्छे से परिवार का गुजारा हो जाता। लेकिन, काम कम हुआ तो भुखमरी की नौबत आ गई।
फिलहाल हालात यह है कि यहां कारीगरी करने पर रोज 250 रुपये मिलते हैं। ऐसे में कारीगर पलायन कर गए। उन्होंने मेरठ, टांडा जैसे बुनकर क्षेत्रों का रुख कर लिया। कारीगर बालकिशन बताते हैं कि मेरठ में उन्हें रोजाना 500 रुपये मिल जाते हैं। इससे गुजर-बसर हो जाता है।
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बुनाई करते कारीगर
– फोटो : अमर उजाला
विक्रय केंद्र की जरूरत ताकि आएं खरीदार
नई बस्ती के रहने वाले 50 साल के अमरदीप बताते हैं कि यहां विक्रय केंद्र की जरूरत है। ताकि बनाए गए माल को एक स्थान पर रखकर बेचा जा सके। पहले जब मंडी थी तो देश के कोने-कोने से कारोबारी आते थे और कपड़े खरीदकर ले जाते थे। धीरे-धीरे यह सब बंद हो गया। अब स्थिति यह है कि अपने स्तर पर ही कपड़ों को बेचने के लिए भेजा जाता है। ऐसे में अगर विक्रय केंद्र बन जाए तो एकबार फिर पुराने दिन लौट सकते हैं।
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पावरलूम से गमछा बुनते अमरदीप
– फोटो : अमर उजाला
प्लांट लगाने के लिए तुरंत सब्सिडी की जरूरत
कपड़ा उद्योग के लिए सबसे जरूरी बिजली है। सरकार के दावों के बाद भी पर्याप्त बिजली नहीं मिल पा रही है। वहीं, ग्रामीण क्षेत्र में बुनकरों को 650 रुपये प्रति माह देने ही होते हैं। जबकि शहरी क्षेत्र में यह 700 रुपये है। हालांकि सरकार सौर ऊर्जा को बढ़ावा दे रही है। कोरी विजय कंचन बताते हैं, पांच से 25 किलोवाट का सौर ऊर्जा प्लांट लगाने पर अनुसूचित जाति के बुनकरों को 75 प्रतिशत की सब्सिडी मिलती है। लागत साढ़े चार लाख रुपये आती है। लेकिन, सब्सिडी छह माह बाद मिलती है। वहीं, बाजार से लगवाने पर इस प्लांट पर दो लाख 10 हजार रुपये खर्च होते हैं। ऐसे में यदि सरकार की ओर से सब्सिडी तुरंत मिल जाए तो बेहतर होगा। कंचन बताते हैं कि कस्बे में सौर ऊर्जा का इस्तेमाल अब तक एक ही कारोबारी कर रहा है।
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बॉबिन में सूत भरती महिलाएं
– फोटो : अमर उजाला
साल 2023 में बना क्लस्टर
गांव देवरीसिंहपुरा को साल 2023 में क्लस्टर बनाया गया। इसके तहत 50 बुनकरों को पावरलूम, साैर ऊर्जा के लिए प्लांट और जैकार्ट की सुविधा दी जानी थी। हालांकि अब तक इस दिशा में कुछ नहीं किया जा सका।
परिवहन के लिए हो बेहतर व्यवस्था
69 साल के देवीप्रसाद बताते हैं पहले यहां 31 बसों को परिवहन की अनुमति थी। अब सिर्फ एक है। यदि बसों की संख्या बढ़ाई जाए तो दूर-दराज से भी व्यापारी आएंगे। यहां से कपड़ों को खरीदकर ले जाएंगे। इससे कारोबार बढ़ेगा। फिर पहले जैसा बेहतर हो जाएगा।