श्रीराम ने पिता की मौत पर रोने की बजाय उनके गोलोकवाशी होने पर जश्न मनाया। उन्होंने ढोल बजवाया। ढोल के बीच साथियों संग नाचते गाते पिता की अर्थी को श्मसान घाट तक ले गए। पिता की अर्थी पर उसी तरह नोट लुटाए, जिस तरह कोई आम आदमी शादी-विवाह की खुशी में नोट लुटाता है। वहां पर खुश होकर विधि विधान से पिता का अंतिम संस्कार किया।
इसके बाद तेरह दिनों तक विधि विधान से क्रिया-कर्म संपन्न किए। यही नहीं तेरहवीं के दिन किसी शादी कार्यक्रम की तरह ही डीजे बजवाया। डीजे में नाचते गाते, खुशियां मनाते लोगों को भोज में खाना खिलाया। यानी पिता के गोलोकवाशी होने पर उनके अंतिम क्रिया कर्मों को किसी शादी विवाह की तरह संपन्न किया।
इसके पीछे श्रीराम के क्या विचार थे, इस पर उन्होंने कहा कि इस नश्वर संसार से जो विदा होता है, वह दोबारा यहां नहीं आता। मेरे पिता गोलोकधाम को पधारे हैं। उनकी यह अंतिम बरात थी। अब उन्हें यहां दोबारा नहीं आना। इसलिए उन्हें रोकर नहीं बल्कि हंसते गाते हुए विदा किया है।
बेटे श्रीराम ने कहा कि लोग स्वार्थ के वश में होकर अपनों के जाने पर दुख व्यक्त करते हैं। जो सिर्फ एक दिखावा होता है। उनका मानना है कि किसी को भी रोते हुए इस संसार से विदा नहीं करना चाहिए। रोने से जाने वाली की आत्मा को दुख होता है।