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– फोटो : अमर उजाला

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कानपुर के बिल्हौर में पिंकी (बदला नाम) की छह माह की बेटी की तबीयत खराब हुई। डॉक्टरों ने मस्तिष्क में सूजन (हाइड्रोसिफलस) बताई। बच्ची को लखनऊ के कॉरपोरेट अस्पताल लाया गया। यहां दो दिन भर्ती रखने के बाद परिजनों ने छुट्टी करा ली। दो दिन बाद बच्ची की मौत हो गई।

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पिंकी की बिटिया सिर्फ एक उदाहरण है। प्रदेश में 70 फीसदी बच्चियों को अपने ही माता पिता से महंगे इलाज के मामले में सौतेला व्यवहार झेलना पड़ता है। पीडियाट्रिक इंटेसिव केयर यूनिट (पीआईसीयू) और न्यूनेटल इंटेसिव केयर यूनिट (एनआईसीयू) में भर्ती होने वालों में बच्चियों की हिस्सेदारी सिर्फ 30 फीसदी है। यही हाल सामान्य ओपीडी का है।

साफ है कि दौर बदला है, लेकिन बेटी के इलाज पर खर्च करने से बचने की प्रवृत्ति नहीं बदली है। ये हम नहीं बल्कि सरकारी और निजी अस्पताल के आंकड़े कह रहे हैं। अमर उजाला ने पिंकी की बेटी का मामला सामने आने के बाद प्रदेश के सुपर स्पेशियलिटी सरकारी और कॉरपोरेट अस्पतालों के एनआईसीयू व पीआईसीयू का सर्वे किया।

जुलाई और अगस्त में एनआईसीयू व पीआईसीयू में भर्ती गंभीर बच्चों में औसतन 30 फीसदी ही बच्चियां थीं। निजी अस्पतालों में यह आंकड़ा 25 फीसदी है, जबकि केजीएमयू, संजय गांधी पीजीआई और लोहिया संस्थान को मिलाकर देखें तो औसत 40 फीसदी है। दूरदराज के जिलों में यह संख्या 20 फीसदी से नीचे चली जाती है। 



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